रंग

Mon 22 December 2014 | -- (permalink)

सूरज की सफेद किरणों मे
सतरंग से बढकर
कई और रंग हैं ऐसे
जो कभी न आयेंगे
मेरी अकेली-अधूरी नज़र के सामने

उन रंगो कि गिंती
एक किसी मायूस दुपहर मे
शुरू करी थी फिर भी
जब काँच के गिलास मे भरे थोड़े
पानी-व्हिस्की के नज़रिये से
एक गुज़रती किरण में
सैंक्ड़ो रंग गिन पाया था

आज, मेरी जान
गिलास की जगह तुम्हारा बदन
जिसकी गर्माहट मे तपता
मेरा जिस्म, अाग हुआ
कुछ चिंगारियां जो उड़
जा टकराई तुम्हारी आँखों से
हज़ारों-लाखों-अनगिनत रंग टूट पड़े

इन रंगों कि गिंती मे तो
ज़िदगी भर की दुपहरें लग जायेंगी
एक भी जिनमे से
मायूस ना मिलेगी

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